राहें
तुमने नदी की
रवानी चुनी
मैंने कुंए का
ठहरा पानी ...
तुम अपना
विस्तार देखते रहे
और मैं गहराई ...
तुम सागर में
समाहित हो
निश्चित ही
विशालता का
वरण कर लोगे
पर खारेपन के साथ ...
और मैं
गहराई से
धराजल को पा
नूतनता का
वरण कर लूँगा
मीठेपन के साथ ...
फिर ....
...........
कँही व्योम में
प्रियवर
हम होंगे साथ
जंहा एक कदम तुम्हारा
एक कदम मेरा होगा ..
और फैसला होगा
अपने हाथ .....!
1 टिप्पणी:
क्या बात है। बहुत खूब लिखा है, मुझे यह बहुत पसंद आया।
पिछले कुछ दिनों से कार्यों की अधिकतावश पढना छूटा तो मन में कसक भी बढ चली थी, और जब इस रचना को पढा तो अच्छा लगा। सागर मे समाहित होने वाला प्रसंग मुझे बहुत भाया...धराजल की नूतनता, जीवन भी है। सागर खारा और उथला सा है..विशालता की प्रचंडता को बेहतरीन कूंचा है सुधीर। मीठापन जीवन में है, सादे-सादगी वाले।
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