रविवार, 24 अक्तूबर 2010

कमबख्त....
          १

आजादी अब
रास आती नहीं
क्योंकर
कहा मुझसे
आँखों में
'केद' कर लेंगे तुम्हे !

         

कागज़ पर
लेखनी सरकती नहीं
क्योंकर
तुम्हारा नाम ही
बेहतर 'नज़्म'
जान पड़ती है मुझे !

         

दिल को
चाहकर भी
बहला न सका
क्योंकर
उसे 'विश्वास' कि जिद
थमाई तुमने !

         

मनसूबे अब
अलहदा होते नहीं
मुझसे
क्योंकर
'तलब' की गिरह
लगाई तुमने !