बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

दूरंगी

    १

पैमाने से
छलकी मधु 
जब
कविता बनती है /
गली के मोड़ की
मधुशाला 
तब 
उसका पता बनती है ! 

     

सुना है
अंगूर की बेटी 
से इश्क 
कर बेठा है
अब वो /
'दीवाना' कहता है 
बोतल पर
बेवफाई की इबारत
लिखी नहीं होती !

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

कमबख्त....
          १

आजादी अब
रास आती नहीं
क्योंकर
कहा मुझसे
आँखों में
'केद' कर लेंगे तुम्हे !

         

कागज़ पर
लेखनी सरकती नहीं
क्योंकर
तुम्हारा नाम ही
बेहतर 'नज़्म'
जान पड़ती है मुझे !

         

दिल को
चाहकर भी
बहला न सका
क्योंकर
उसे 'विश्वास' कि जिद
थमाई तुमने !

         

मनसूबे अब
अलहदा होते नहीं
मुझसे
क्योंकर
'तलब' की गिरह
लगाई तुमने !

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

     पर सोचता हूँ मैं ...........
१-     जानता हूँ
       औंस की
       बूंदों की
       पाकीजगी को
       पर सोचता हूँ ..
       यें इतनी जल्दी
       ढुलकी कैसे ?

२-    जानता हूँ
       कि तुम्हें
       तुम्हारा
       सारा सामान
       अब लोटाना  होगा 
       पर सोचता हूँ ..
       चुराए हुए
       चुम्बन लोटाऊ कैसे ?

३-    जानता हूँ
       स्नेह से
       मुफलिसी का
       कोई वास्ता नहीं
       पर सोचता हूँ ..
       दिल बेचकर तुम
       धनी हुए कैसे ?
  

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

कुछ खट्टी ----------
          १.
तुमने करीने से
लगाये पैबंद
फिर भी
पोशिदा नहीं हुआ
'सच'
वह तो नंगा का नंगा
ही रहा !
         २
लोग तुम्हें
कतरा- कतरा
खरीदते रहे /
तुम महंगे सामान से
घर भरते रहे /
दिल तो फिर भी
खाली का खाली ही रहा !

कुछ मीठी ----------

कुछ इस तरह 
'आलम'
नींद का देखा यूँ
सुनकर लोरी माँ की /
न याद मज्जिद रही
न याद मंदिर ही रहा !
                               

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

मेरे सूबे की साँझ
स्वर परिंदे
उतरे आसमाँ से
गीत संजा
मुखर हुए /
सुर्ख हुए मुख
यूँ  गोरी के
चाँद जेसे
चस्पा हुए /
अजान कहीं शंखनाद
का गुंजन
महकी यूँ गोधूलि ऐसे
घर -घर जेसे
'प्रयाग' हुए /
कहीं अनुभव चौपालों के
कहीं मोड़
जवानी के
आबाद हुए यूँ ऐसे
जेसे चलती फिरती
किताब हुए /
पैजनियाँ की
खनक सा
छलका पानी
पनघट पर यूँ
गीत तरुणाई
प्रखर हुए /
चस्पा चस्पा
बिखरी मिटटी
जेसे चन्दन की
'आब' हुई/
तान कजरी की
झूले की परवान हुई /
कुछ इस तरह देखो
मेरे सूबे की साँझ हुई !