पर सोचता हूँ मैं ...........
१- जानता हूँ
औंस की
बूंदों की
पाकीजगी को
पर सोचता हूँ ..
यें इतनी जल्दी
ढुलकी कैसे ?
२- जानता हूँ
कि तुम्हें
तुम्हारा
सारा सामान
अब लोटाना होगा
पर सोचता हूँ ..
चुराए हुए
चुम्बन लोटाऊ कैसे ?
३- जानता हूँ
स्नेह से
मुफलिसी का
कोई वास्ता नहीं
पर सोचता हूँ ..
दिल बेचकर तुम
धनी हुए कैसे ?
2 टिप्पणियां:
सुधीरभाई...सुधीरभाई....क्या कर डाला आपने....। लाजवाब। पर सोचता हूं मैं कि "जानता हूं कामर्स के प्रोफेसर हो,
पर सोचता हूं अकाउंट में साहित्य कैसे?"
नहीं अब नहीं सोचता क्योंकि साहित्य के लिये किसी विलग विषय का होना या न होना आवश्यक नहीं बल्कि आपके विचारों की पवित्रता होनी आवश्यक होती है।...
1, पाकीज़गी, बहुत जल्द ढुलक जाती है, शायद इसी वजह से वो पाक बनी होती है।
2, चुम्बन भी चुराये हुए..., कब भाई?? बेहतरीन लिखा है और यह मुझे ज्यादा बेमिसाल लगा।
3, यथार्थ है यह यथार्थ...दिल बेचने वाले ही धनी है आज..स्नेह वाले बेचारे हम जैसे मुफलीस ही बने रहना है...। क्या बात है
बहुत पसन्द आया
हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया ..........माफी चाहता हूँ..
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