रविवार, 24 अक्तूबर 2010

कमबख्त....
          १

आजादी अब
रास आती नहीं
क्योंकर
कहा मुझसे
आँखों में
'केद' कर लेंगे तुम्हे !

         

कागज़ पर
लेखनी सरकती नहीं
क्योंकर
तुम्हारा नाम ही
बेहतर 'नज़्म'
जान पड़ती है मुझे !

         

दिल को
चाहकर भी
बहला न सका
क्योंकर
उसे 'विश्वास' कि जिद
थमाई तुमने !

         

मनसूबे अब
अलहदा होते नहीं
मुझसे
क्योंकर
'तलब' की गिरह
लगाई तुमने !

3 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

बहुत बढ़िया क्षणिकायें/कवितायें.

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

ये तलब...चीज ही ऐसी है..जब लगती है तो पान की दुकान पर जाना ही पडता है..। क्योंकर 'तलब' की गिरह लगाई तुमने।
विश्वास स्थाई भाव पैदा करता है और इसकी जिद यदि बहला दे तो फिर विश्वास क्या..। बहुत खूबसूरत पंक्तियां हैं सुधीर भाई। 1 और 2 क्षणिका फिर गज़ब बन गई है। जिसके नाम में ही कशिश हो फिर कैसी लेखनी और कैसा लेख...।
कमबख्त..ये आंखें..और कैद करने की करामत..कौन चाहेगा भाई फिर आज़ादी। "तेरी आंखों की चाहत में..मैं सबकुछ लुटा दूंगा..."
बेहतरीन..हैं सुधीरजी..। तारीफ ही कर पाउंगा..आलोचना के लिये कुछ तो

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

आलोचना के लिये कुछ तो छोडते..।