आई है सदा ये कैसी
दिल को ही भेद गया कोई
शहरों के कुचें हुए ये कैसे
मकां ही मकां है घर ले गया कोई
पोशीदा थी इज्जत ओ आन जो कभी
पेशानी पर दाग लगा गया कोई
कह्कहें महफिल के खामोश हुए ऐसे
शमा ए महफिल बुझा गया कोई
परवाज़ परिंदों की आसमाँ रही नहीं
खेतों में आग लगा गया कोई
सजती नहीं अब मेहंदी शह-बाला के हाथों में
राख बारूद की देखो मल गया कोई
तलबगीरों के लिए सुधीर, न नज्म है न नगमें
'कलम' को ही कलम कर गया कोई