मंगलवार, 28 सितंबर 2010

आई है सदा ये कैसी
दिल को ही भेद गया कोई

                               शहरों के कुचें हुए ये कैसे
                               मकां ही मकां है घर ले गया कोई

पोशीदा थी इज्जत ओ आन जो कभी
पेशानी पर दाग लगा गया कोई

                               कह्कहें महफिल के खामोश हुए ऐसे
                               शमा ए महफिल बुझा गया कोई

परवाज़ परिंदों की आसमाँ रही नहीं
खेतों में आग लगा गया कोई

                             सजती नहीं अब मेहंदी शह-बाला के हाथों में
                             राख बारूद की देखो मल गया कोई

तलबगीरों के लिए सुधीर, न नज्म है न नगमें
'कलम' को ही कलम कर गया कोई

सोमवार, 27 सितंबर 2010

पैने हुए खंजर झुठ के
सत्य का मातम अब कहाँ !

स्याह हुए पत्तें दरख्तों के
कपोतों का डेरा अब कहाँ !

अश्कों के सोते हुए खुश्क
रुदालियाँ बेगानी अब कहाँ !

ख्यालात थे खुद के समर्पण के
बगेर दाम कोई तोलता अब कहाँ !

चिराग है मुअस्सर  रोशनी के लिए
मंदिर मस्जिद एक होते अब कहाँ !

सुना दुनियादार बन बेठा है तु
सजल आखों में दिखता तु ही ,दुनिया अब कहाँ !

उम्मीद का धीर लिए 'सुधीर', याद रख
आफ़ताब बगेर महताब को रोशनी कहाँ !