आई है सदा ये कैसी
दिल को ही भेद गया कोई
शहरों के कुचें हुए ये कैसे
मकां ही मकां है घर ले गया कोई
पोशीदा थी इज्जत ओ आन जो कभी
पेशानी पर दाग लगा गया कोई
कह्कहें महफिल के खामोश हुए ऐसे
शमा ए महफिल बुझा गया कोई
परवाज़ परिंदों की आसमाँ रही नहीं
खेतों में आग लगा गया कोई
सजती नहीं अब मेहंदी शह-बाला के हाथों में
राख बारूद की देखो मल गया कोई
तलबगीरों के लिए सुधीर, न नज्म है न नगमें
'कलम' को ही कलम कर गया कोई
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
सोमवार, 27 सितंबर 2010
पैने हुए खंजर झुठ के
सत्य का मातम अब कहाँ !
स्याह हुए पत्तें दरख्तों के
कपोतों का डेरा अब कहाँ !
अश्कों के सोते हुए खुश्क
रुदालियाँ बेगानी अब कहाँ !
ख्यालात थे खुद के समर्पण के
बगेर दाम कोई तोलता अब कहाँ !
चिराग है मुअस्सर रोशनी के लिए
मंदिर मस्जिद एक होते अब कहाँ !
सुना दुनियादार बन बेठा है तु
सजल आखों में दिखता तु ही ,दुनिया अब कहाँ !
उम्मीद का धीर लिए 'सुधीर', याद रख
आफ़ताब बगेर महताब को रोशनी कहाँ !
सत्य का मातम अब कहाँ !
स्याह हुए पत्तें दरख्तों के
कपोतों का डेरा अब कहाँ !
अश्कों के सोते हुए खुश्क
रुदालियाँ बेगानी अब कहाँ !
ख्यालात थे खुद के समर्पण के
बगेर दाम कोई तोलता अब कहाँ !
चिराग है मुअस्सर रोशनी के लिए
मंदिर मस्जिद एक होते अब कहाँ !
सुना दुनियादार बन बेठा है तु
सजल आखों में दिखता तु ही ,दुनिया अब कहाँ !
उम्मीद का धीर लिए 'सुधीर', याद रख
आफ़ताब बगेर महताब को रोशनी कहाँ !
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