बुधवार, 2 जून 2010

स्वेद पौध
हर रात
पिचका पेट लिए
वह
आकाश तकता है
माँ कहती है
चंदा गोल है
रोटी जैसा !
सजावट
तपती धुप में
स्वेद कण से
रंजित काया /
सजती है
ठन्डे ड्राइंग रूम
की दीवारों पर !
स्वेदाकार
स्वेद से उपजी 
क्रांति
दो रोटी में
दफ़न होती है /
स्वेद्काया की
परछाई
भला कहाँ
लम्बी होती है !