गुरुवार, 15 जुलाई 2010

पिता की कलम से ''बिटिया''

आँगन खिला
पारिजात
झरता है फुल
जब
खिलखिलाती है
बिटिया .....
अंजुरी भर
पत्नी अविलम्ब
अर्पण करती
कृष्ण को
अपने सदा /
दीप जला
कहती दादी
फूल पाँखुरी है
स्वर्ग से आई /
दादा भी तो
आँगन बुहार
रोज सींचते
पारिजात /
नवल -धवल सा
खुद को पाया
मैंने सुरभि पा !