पिता की कलम से ''बिटिया''
आँगन खिला
पारिजात
झरता है फुल
जब
खिलखिलाती है
बिटिया .....
अंजुरी भर
पत्नी अविलम्ब
अर्पण करती
कृष्ण को
अपने सदा /
दीप जला
कहती दादी
फूल पाँखुरी है
स्वर्ग से आई /
दादा भी तो
आँगन बुहार
रोज सींचते
पारिजात /
नवल -धवल सा
खुद को पाया
मैंने सुरभि पा !
1 टिप्पणी:
बेहतरीन। यह आपकी शैली है। कट टू कट में कह देना। मैं इसी शैली की तारीफ करता हूं। वैसे आम पाठक यानी सामान्य पाठक को इसे समझने में थोडा सा झटका खाना होता है, मगर जब दिमाग में उतरेगा तो अपने पूरे रस के साथ। बिटिया, पारिजात, सुरभि.....कमाल है। लिखते रहिये सुधीर जी..बहुत अच्छा लिख रहे हैं
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