सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

कुछ खट्टी ----------
          १.
तुमने करीने से
लगाये पैबंद
फिर भी
पोशिदा नहीं हुआ
'सच'
वह तो नंगा का नंगा
ही रहा !
         २
लोग तुम्हें
कतरा- कतरा
खरीदते रहे /
तुम महंगे सामान से
घर भरते रहे /
दिल तो फिर भी
खाली का खाली ही रहा !

कुछ मीठी ----------

कुछ इस तरह 
'आलम'
नींद का देखा यूँ
सुनकर लोरी माँ की /
न याद मज्जिद रही
न याद मंदिर ही रहा !
                               

1 टिप्पणी:

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

जबरदस्त। खासतौर पर ' कुछ् मीठी..' , यह क्या एकदम से इतना आत्मतल लेखन। सुधीरजी, क्या कहूं..जब कोई रचना मुझे बेहद बेहद अच्छी लगती है तो मेरे तमाम शब्द बन्ध जाते है। फिर उस पर कुछ लिखना वाकई कठिन है।