शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

मेरे सूबे की साँझ
स्वर परिंदे
उतरे आसमाँ से
गीत संजा
मुखर हुए /
सुर्ख हुए मुख
यूँ  गोरी के
चाँद जेसे
चस्पा हुए /
अजान कहीं शंखनाद
का गुंजन
महकी यूँ गोधूलि ऐसे
घर -घर जेसे
'प्रयाग' हुए /
कहीं अनुभव चौपालों के
कहीं मोड़
जवानी के
आबाद हुए यूँ ऐसे
जेसे चलती फिरती
किताब हुए /
पैजनियाँ की
खनक सा
छलका पानी
पनघट पर यूँ
गीत तरुणाई
प्रखर हुए /
चस्पा चस्पा
बिखरी मिटटी
जेसे चन्दन की
'आब' हुई/
तान कजरी की
झूले की परवान हुई /
कुछ इस तरह देखो
मेरे सूबे की साँझ हुई !

8 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आपने सूबे की बहुत सुंदरता से पूरी दिनचर्या लिखी ....सुन्दर प्रस्तुति

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 5-10 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

http://charchamanch.blogspot.com/

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

http://charchamanch.blogspot.com/2010/10/19-297.html

यहाँ भी आयें .

Dr Xitija Singh ने कहा…

बहुत सुंदर शब्दों में आपने अपने सूबे की सांझ का वर्णन किया है ... बधाई ..

M VERMA ने कहा…

आपके सूबे की साँझ बहुत खूबसूरत है

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

सांझ को सुंदर शब्द दिए हैं.

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

सबसे पहले बधाई। आपकी कविता को चर्चा मंच पर जगह मिली। और इसकी वजह भी यह है कि आप बेहद बारिक रचनायें कर रहे हैं। मेरे सूबे की सांझ....। सुधीरजी, काव्य शास्त्र के आधुनिक काव्य दौर की शुरुआती अवधि में लिखी जाती रही है ऐसी कवितायें, जहां तक मुझे पता है। जिन शब्दों को आपने संजोया है, बडी ही खूबसूरती दी है। मैं अतिप्रसन्न हूं यह देख कर कि इस कविता में परिपक्वता का संकेत ही नहीं बल्कि आम पके ही हैं। इसलिये भी

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत खूबसूरत है