गुरुवार, 11 नवंबर 2010

तंग गलियों के
छोटे कमरों में
पसरे सपने
जीवन के कतिपय संकेत -
छोंक की गंध
और
कुलबुलाते धुंए
से बाबस्ता हो
बाहर आ पसरते है !
छोंक की गंध
गलियों के मुहाने पर
खुलते
ऊँची इमारतों से घिरे
बड़े चौराहों की
तथाकथिक सु-गंध में
कहीं तिरोहित हो
जाती है !
कुलबुलाता धुआं भी
समय के काँधे पर
बेताली प्रश्न -
क्या चौराहें 'सुरसा'
होते है ?
पटक कहीं अद्रश्य हो
जाता है !
अनुत्तरित प्रश्न जो
आज भी लटका है
कल की तरह /
हे जन-नायक
क्या मुझे ही यह
नज़र आता है ..............?

2 टिप्‍पणियां:

संजय कुमार चौरसिया ने कहा…

sudheer ji,

sundar , bahut badiya

http://sanjaykuamr.blogspot.com/

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

नहीं मुझे भी नज़र आता है। चौराहे सुरसा तो होते हैं मगर जब दो यार मिल खडे हों तो सुरसाई मुंह से निकल उसके पूरे अनुभव को बांट खा सकते हैं। सो आपके प्रश्न का हल। बहुत अच्छी तरह से अपनी मानसिक स्थिति का दर्शन किया गया है। यह एक अनुभूति है जिसे आज अपने आस पास न पाकर मन थोडा उद्वेलित हो उठता है। किंतु अच्छा यह है कि मन के विचारों को उतनी ही इमानदारी से व्यक्त कर देने का साहस है।