सोमवार, 27 सितंबर 2010

पैने हुए खंजर झुठ के
सत्य का मातम अब कहाँ !

स्याह हुए पत्तें दरख्तों के
कपोतों का डेरा अब कहाँ !

अश्कों के सोते हुए खुश्क
रुदालियाँ बेगानी अब कहाँ !

ख्यालात थे खुद के समर्पण के
बगेर दाम कोई तोलता अब कहाँ !

चिराग है मुअस्सर  रोशनी के लिए
मंदिर मस्जिद एक होते अब कहाँ !

सुना दुनियादार बन बेठा है तु
सजल आखों में दिखता तु ही ,दुनिया अब कहाँ !

उम्मीद का धीर लिए 'सुधीर', याद रख
आफ़ताब बगेर महताब को रोशनी कहाँ !

2 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

ख्यालात थे खुद के समर्पण के
बगेर दाम कोई तोलता अब कहाँ !

चिराग है मुअस्सर रोशनी के लिए
मंदिर मस्जिद एक होते अब कहाँ !
वाह बहुत खूब। हर पँक्ति खूब सूरत। बधाई।

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

क्या बात है। बहुत खूब लिख दिया आपने।
चिराग है मुअस्सर रोशनी के लिए
मंदिर मस्जिद एक होते अब कहाँ !
बेहतरीन सोच।
मज़ा आ गया भाई पढकर..। जानदार लेखन के लिये पहले तो बधाई। बाद में..यह कि..जनाब आप अगर सोच लें और लिखते रहने का वक्त निकालते रहे तो कलम पैनी भी हो जायेगी और शब्द धारधार भी। कमाल है आपमे।