शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

            गीत बदरियाँ हुए बेगाने

                    - भींगा न आँचल
                      भींगा काजल
                      चुप्प हुए है बोल ....
                      दिखता सागर
                      सकोरे में
                      सावन मेरे
                      अब तो गठरी खोल !

- कंठ व्याकुल
  गुमसुम बदरियाँ
  बजरिया उड़ाती धूल....
  वसुधा प्यासी
  अब जाने कैसे
  खिले फूल  !

                      - नाँव कागज की
                        चले कैसे ?
                        सोचे 'बाला' आज....
                        बीज रखा हाथों में
                        कैसे बजे
                        अब साज  !

9 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
बेनामी ने कहा…

ब्‍लॉग्‍स की दुनिया में मैं आपका खैरकदम करता हूं, जो पहले आ गए उनको भी सलाम और जो मेरी तरह देर कर गए उनका भी देर से लेकिन दुरूस्‍त स्‍वागत। मैंने बनाया है रफटफ स्‍टॉक, जहां कुछ काम का है कुछ नाम का पर सब मुफत का और सब लुत्‍फ का, यहां आपको तकनीक की तमाशा भी मिलेगा और अदब की गहराई भी। आइए, देखिए और यह छोटी सी कोशिश अच्‍छी लगे तो आते भी रहिएगा

http://ruftufstock.blogspot.com/

Coral ने कहा…

कंठ व्याकुल
गुमसुम बदरियाँ
बजरिया उड़ाती धूल....
वसुधा प्यासी
अब जाने कैसे
खिले फूल


बहुत सुन्दर अल्फाज़ ....
सुन्दर रचना के लिए बधाई
_____
http://www.coralsapphire.blogspot.com

संगीता पुरी ने कहा…

इस सुंदर से ब्‍लॉग के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

सुधीर जी, मौनसून से मनुहार अच्छा लगा... लेकिन जब मेघ मौन हो अऊर धरती वृष्टि सून तो आपका कबिता जरूर याद आएगा... बहुत सुंदर!!

शशांक शुक्ला ने कहा…

बहुत सुंदर भावनाओं के साथ कविता लिखी है
http://merajawab.blogspot.com
http://kalamband.blogspot.com

बेनामी ने कहा…

कंठ व्याकुल
गुमसुम बदरियाँ
बजरिया उड़ाती धूल....
वसुधा प्यासी
अब जाने कैसे
खिले फूल!

बहुत खूब

अजय कुमार ने कहा…

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

गज़ब करने के लिये कोई हीरे नहीं जडने होते। शब्दों को सुगठित कर देना गज़ब हो जाता है। और आपकी कलम उसी दिशा में चल रही है। यह वाकई मेरे लिये खास है।
बदरिया के जरिये खेतो खलियानों के उस समां का दर्शन देती कविता है जिसके लिये आज किसान पलक पावडे बिछाये है तो सुधी जन अपने अन्दाज में अपनी दुखती रग को सहलाते हैं। बहुत सुन्दर तरिके से बुनी गई रचना है। मर्म है, और एक आस है। साहित्य में शब्द अपना संसार होते हैं, देश काल की परिस्थितियों को वे अपने शब्दों के माध्यम से ही व्यक्त कर सकते हैं। राजनीतिक क्रांति का वक्त हो या सामाजिक दशा का, या फिर प्राकृतिक आपदाओं में खुद को संतुलित रख देने का दिवास्वप्न हो, लेखक कलम के जरिये ही अपनी बात कहता है और पाठक उसे अंतर में उतार कर इन सारी दशा, काल, परिस्थिति आदि को समझ कर राहत की उम्मीद करता है कि अब कुछ हो? बहरहाल सुधीरजी, आपकी नज़र प्राकृतिक दिशा में कलम चला रही है जो चेतनमयी इंसान के होने को दर्शाती है।


----कल मेरा नेट चला गया था तो आया ही नहीं, आज भी तंग कर रहा था मगर आते ही मैने सबसे पहले आपके ब्लॉग को नज़र किया। इधर बारिश है तो नेट आदि के नेटवर्क टिके नहीं रहते, खैर..