सोमवार, 31 मई 2010

शराफत जो
पसरती थी
आँगनो में
दिखाई देती है
वो अब
इश्तेहारो में ..
बाँग अब
भोर की
मुर्गा देता नहीं
क्यों ? अजान भी
कानो को
सुनाई देती नहीं /
वेदों की ऋचाओ से
खेरियत तलाशते
संत भी
कर बेठे इश्तेहार
कोई नई बात नहीं /
मजलिस में
मातबर
दिखाई देता नहीं ..
मौजूं है जो
अनासिर में
लीन हो जायेगा
कोई क्यों
याद करता नहीं ....!

1 टिप्पणी:

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

सब कुछ बदल गया। समय और इस बदलाव के बीच वाकई बहुत बैर है, हमे लगता है कि हर हमेश बदलाव जीत जाता है, फिर हम कहते हैं कि समय का फेर है.../ अब बताओ कोई कैसे तो याद करे...../

तुमहारी यह रचना पहले भी मैने पढी है.