रविवार, 30 मई 2010

वो तेरे हाथों की
मेहंदी की खुशबु
वो रूमानी शामें
जहाँ सांसे
महका करती थी
तेरी बातों की
चंचल तितलियाँ
जब मन बगिया में
थिरका करती थी
कितने अच्छे दिन थे
जब तुम मेरे साथ थी ॥
वो शानों पर तेरे
थिरकते मेरे विचार
और वो मुहं मोड़कर
शर्माना तेरा ,
वो तेरा रूठना
और मेरा
कागज पर
मन उकेरकर
मनाना
रूठने मनाने सी
कविता सी
तुम्हारा मुझे
नज़र होना /
कितने अच्छे दिन थे
जब तुम मेरे साथ थी !

1 टिप्पणी:

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

साथ तो आज भी है, अंतर यह है भाई कि आज पत्नी के रूप में है...., खैर..यादे मदमदाती हैं, सोच में डुबोती है और फिर कल्पना अपने पंखों से हवा में तैराने लगती है तब जब 'उनका' साथ मिल जाने जैसा ख्याल है, बडा रूमानी हो जाया करता है आलम।
बहुत मिज़ाज़ वाली रचना है दोस्त।