श्री श्री ब्लॉगनाथ महाराज को
अर्पित स्तुति छंद
- जेहि विधि होय हित मोरा
नाथ तुम्हें वो करना है !
थोड़ा ही सही
लिफ्ट तुम्हें ब्लॉग मेरा करना है !!
- हे कलम -शब्दों के स्वामी
मुझे भरोसा तेरा है !
अच्छी -बुरी सब रचनाओं का
एक तु ही तो डेरा है !!
- 'बढ़िया है' 'अच्छी है'
रचनाओं पर हे नाथ
टिप्पणी मिली कई बार !
भिन्न मिले टिप्पणी
बस यही मुझको दरकार !!
- सौंप दिया तुझको शब्द-धन
फिर क्यूं चिंता फिकर करू !
दिल का हाल सुने दिलवाला
बस यही तो मैं अरज करू !!
शनिवार, 13 नवंबर 2010
गुरुवार, 11 नवंबर 2010
तंग गलियों के
छोटे कमरों में
पसरे सपने
जीवन के कतिपय संकेत -
छोंक की गंध
और
कुलबुलाते धुंए
से बाबस्ता हो
बाहर आ पसरते है !
छोंक की गंध
गलियों के मुहाने पर
खुलते
ऊँची इमारतों से घिरे
बड़े चौराहों की
तथाकथिक सु-गंध में
कहीं तिरोहित हो
जाती है !
कुलबुलाता धुआं भी
समय के काँधे पर
बेताली प्रश्न -
क्या चौराहें 'सुरसा'
होते है ?
पटक कहीं अद्रश्य हो
जाता है !
अनुत्तरित प्रश्न जो
आज भी लटका है
कल की तरह /
हे जन-नायक
क्या मुझे ही यह
नज़र आता है ..............?
छोटे कमरों में
पसरे सपने
जीवन के कतिपय संकेत -
छोंक की गंध
और
कुलबुलाते धुंए
से बाबस्ता हो
बाहर आ पसरते है !
छोंक की गंध
गलियों के मुहाने पर
खुलते
ऊँची इमारतों से घिरे
बड़े चौराहों की
तथाकथिक सु-गंध में
कहीं तिरोहित हो
जाती है !
कुलबुलाता धुआं भी
समय के काँधे पर
बेताली प्रश्न -
क्या चौराहें 'सुरसा'
होते है ?
पटक कहीं अद्रश्य हो
जाता है !
अनुत्तरित प्रश्न जो
आज भी लटका है
कल की तरह /
हे जन-नायक
क्या मुझे ही यह
नज़र आता है ..............?
रविवार, 7 नवंबर 2010
शुक्रवार, 5 नवंबर 2010
बुधवार, 3 नवंबर 2010
मंगलवार, 2 नवंबर 2010
बुधवार, 27 अक्टूबर 2010
रविवार, 24 अक्टूबर 2010
कमबख्त....
१
आजादी अब
रास आती नहीं
क्योंकर
कहा मुझसे
आँखों में
'केद' कर लेंगे तुम्हे !
२
कागज़ पर
लेखनी सरकती नहीं
क्योंकर
तुम्हारा नाम ही
बेहतर 'नज़्म'
जान पड़ती है मुझे !
३
दिल को
चाहकर भी
बहला न सका
क्योंकर
उसे 'विश्वास' कि जिद
थमाई तुमने !
४
मनसूबे अब
अलहदा होते नहीं
मुझसे
क्योंकर
'तलब' की गिरह
लगाई तुमने !
१
आजादी अब
रास आती नहीं
क्योंकर
कहा मुझसे
आँखों में
'केद' कर लेंगे तुम्हे !
२
कागज़ पर
लेखनी सरकती नहीं
क्योंकर
तुम्हारा नाम ही
बेहतर 'नज़्म'
जान पड़ती है मुझे !
३
दिल को
चाहकर भी
बहला न सका
क्योंकर
उसे 'विश्वास' कि जिद
थमाई तुमने !
४
मनसूबे अब
अलहदा होते नहीं
मुझसे
क्योंकर
'तलब' की गिरह
लगाई तुमने !
शनिवार, 23 अक्टूबर 2010
पर सोचता हूँ मैं ...........
१- जानता हूँ
औंस की
बूंदों की
पाकीजगी को
पर सोचता हूँ ..
यें इतनी जल्दी
ढुलकी कैसे ?
२- जानता हूँ
कि तुम्हें
तुम्हारा
सारा सामान
अब लोटाना होगा
पर सोचता हूँ ..
चुराए हुए
चुम्बन लोटाऊ कैसे ?
३- जानता हूँ
स्नेह से
मुफलिसी का
कोई वास्ता नहीं
पर सोचता हूँ ..
दिल बेचकर तुम
धनी हुए कैसे ?
१- जानता हूँ
औंस की
बूंदों की
पाकीजगी को
पर सोचता हूँ ..
यें इतनी जल्दी
ढुलकी कैसे ?
२- जानता हूँ
कि तुम्हें
तुम्हारा
सारा सामान
अब लोटाना होगा
पर सोचता हूँ ..
चुराए हुए
चुम्बन लोटाऊ कैसे ?
३- जानता हूँ
स्नेह से
मुफलिसी का
कोई वास्ता नहीं
पर सोचता हूँ ..
दिल बेचकर तुम
धनी हुए कैसे ?
सोमवार, 4 अक्टूबर 2010
कुछ खट्टी ----------
१.
तुमने करीने से
लगाये पैबंद
फिर भी
पोशिदा नहीं हुआ
'सच'
वह तो नंगा का नंगा
ही रहा !
२
लोग तुम्हें
कतरा- कतरा
खरीदते रहे /
तुम महंगे सामान से
घर भरते रहे /
दिल तो फिर भी
खाली का खाली ही रहा !
कुछ मीठी ----------
कुछ इस तरह
'आलम'
नींद का देखा यूँ
सुनकर लोरी माँ की /
न याद मज्जिद रही
न याद मंदिर ही रहा !
१.
तुमने करीने से
लगाये पैबंद
फिर भी
पोशिदा नहीं हुआ
'सच'
वह तो नंगा का नंगा
ही रहा !
२
लोग तुम्हें
कतरा- कतरा
खरीदते रहे /
तुम महंगे सामान से
घर भरते रहे /
दिल तो फिर भी
खाली का खाली ही रहा !
कुछ मीठी ----------
कुछ इस तरह
'आलम'
नींद का देखा यूँ
सुनकर लोरी माँ की /
न याद मज्जिद रही
न याद मंदिर ही रहा !
शनिवार, 2 अक्टूबर 2010
मेरे सूबे की साँझ
स्वर परिंदे
उतरे आसमाँ से
गीत संजा
मुखर हुए /
सुर्ख हुए मुख
यूँ गोरी के
चाँद जेसे
चस्पा हुए /
अजान कहीं शंखनाद
का गुंजन
महकी यूँ गोधूलि ऐसे
घर -घर जेसे
'प्रयाग' हुए /
कहीं अनुभव चौपालों के
कहीं मोड़
जवानी के
आबाद हुए यूँ ऐसे
जेसे चलती फिरती
किताब हुए /
पैजनियाँ की
खनक सा
छलका पानी
पनघट पर यूँ
गीत तरुणाई
प्रखर हुए /
चस्पा चस्पा
बिखरी मिटटी
जेसे चन्दन की
'आब' हुई/
तान कजरी की
झूले की परवान हुई /
कुछ इस तरह देखो
मेरे सूबे की साँझ हुई !
स्वर परिंदे
उतरे आसमाँ से
गीत संजा
मुखर हुए /
सुर्ख हुए मुख
यूँ गोरी के
चाँद जेसे
चस्पा हुए /
अजान कहीं शंखनाद
का गुंजन
महकी यूँ गोधूलि ऐसे
घर -घर जेसे
'प्रयाग' हुए /
कहीं अनुभव चौपालों के
कहीं मोड़
जवानी के
आबाद हुए यूँ ऐसे
जेसे चलती फिरती
किताब हुए /
पैजनियाँ की
खनक सा
छलका पानी
पनघट पर यूँ
गीत तरुणाई
प्रखर हुए /
चस्पा चस्पा
बिखरी मिटटी
जेसे चन्दन की
'आब' हुई/
तान कजरी की
झूले की परवान हुई /
कुछ इस तरह देखो
मेरे सूबे की साँझ हुई !
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
आई है सदा ये कैसी
दिल को ही भेद गया कोई
शहरों के कुचें हुए ये कैसे
मकां ही मकां है घर ले गया कोई
पोशीदा थी इज्जत ओ आन जो कभी
पेशानी पर दाग लगा गया कोई
कह्कहें महफिल के खामोश हुए ऐसे
शमा ए महफिल बुझा गया कोई
परवाज़ परिंदों की आसमाँ रही नहीं
खेतों में आग लगा गया कोई
सजती नहीं अब मेहंदी शह-बाला के हाथों में
राख बारूद की देखो मल गया कोई
तलबगीरों के लिए सुधीर, न नज्म है न नगमें
'कलम' को ही कलम कर गया कोई
दिल को ही भेद गया कोई
शहरों के कुचें हुए ये कैसे
मकां ही मकां है घर ले गया कोई
पोशीदा थी इज्जत ओ आन जो कभी
पेशानी पर दाग लगा गया कोई
कह्कहें महफिल के खामोश हुए ऐसे
शमा ए महफिल बुझा गया कोई
परवाज़ परिंदों की आसमाँ रही नहीं
खेतों में आग लगा गया कोई
सजती नहीं अब मेहंदी शह-बाला के हाथों में
राख बारूद की देखो मल गया कोई
तलबगीरों के लिए सुधीर, न नज्म है न नगमें
'कलम' को ही कलम कर गया कोई
सोमवार, 27 सितंबर 2010
पैने हुए खंजर झुठ के
सत्य का मातम अब कहाँ !
स्याह हुए पत्तें दरख्तों के
कपोतों का डेरा अब कहाँ !
अश्कों के सोते हुए खुश्क
रुदालियाँ बेगानी अब कहाँ !
ख्यालात थे खुद के समर्पण के
बगेर दाम कोई तोलता अब कहाँ !
चिराग है मुअस्सर रोशनी के लिए
मंदिर मस्जिद एक होते अब कहाँ !
सुना दुनियादार बन बेठा है तु
सजल आखों में दिखता तु ही ,दुनिया अब कहाँ !
उम्मीद का धीर लिए 'सुधीर', याद रख
आफ़ताब बगेर महताब को रोशनी कहाँ !
सत्य का मातम अब कहाँ !
स्याह हुए पत्तें दरख्तों के
कपोतों का डेरा अब कहाँ !
अश्कों के सोते हुए खुश्क
रुदालियाँ बेगानी अब कहाँ !
ख्यालात थे खुद के समर्पण के
बगेर दाम कोई तोलता अब कहाँ !
चिराग है मुअस्सर रोशनी के लिए
मंदिर मस्जिद एक होते अब कहाँ !
सुना दुनियादार बन बेठा है तु
सजल आखों में दिखता तु ही ,दुनिया अब कहाँ !
उम्मीद का धीर लिए 'सुधीर', याद रख
आफ़ताब बगेर महताब को रोशनी कहाँ !
शनिवार, 31 जुलाई 2010
खाली पेट के चूहें
खाली पेट के चूहें
भला चिथड़ो में
कहाँ कैद हो पाते
उछलकर बाहर
आ ही जाते है /
तथाकथित निगह-बानों
के शिकार बनते ही
इन चूहों की दुम
काट दी जाती है /
बाज़ार में बिकते फिर
इन्हें देर नहीं लगती /
पिन्जरेदारों को भी
इन चूहों की
तलाश रहती है /
पकडे जाने पर
बनती खबरे
पढ़ी जाती है /
खाली पेट के चूहें
पैदा करने वालो की
खबर कहाँ बनती
और पढ़ी जाती है !
खाली पेट के चूहें
भला चिथड़ो में
कहाँ कैद हो पाते
उछलकर बाहर
आ ही जाते है /
तथाकथित निगह-बानों
के शिकार बनते ही
इन चूहों की दुम
काट दी जाती है /
बाज़ार में बिकते फिर
इन्हें देर नहीं लगती /
पिन्जरेदारों को भी
इन चूहों की
तलाश रहती है /
पकडे जाने पर
बनती खबरे
पढ़ी जाती है /
खाली पेट के चूहें
पैदा करने वालो की
खबर कहाँ बनती
और पढ़ी जाती है !
गुरुवार, 29 जुलाई 2010

मौका मिला तो ...........
लिख दू
ककहरा
स्लेट पर बेटे की
कुछ स्वप्न दू /
बताऊ कि दुनिया
अच्छी ही है !
---------
हो जाऊ थोड़ा रूमानी
गजरा दू प्रेयसी को /
कानों में उसके कह दू
प्रेम होता है
भौतिकता से परे !
---------
धुंए से जलती
आँखों को
खाली पेट /
चिंतातुर मानस को
समझाऊ
रोटी महकती भी है !
-----------
बढती बिटिया को
दू स्नेहाशीष /
और समझाऊ
संस्कृति साथ लेकर
सभ्यता की दौड़ में
शामिल होना
कतई बुरा नहीं है !
----------
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
प्रबंधन की रेसिपी
जी हाँ प्रबंधन की रेसिपी सीखें आपकी अपनी पत्नी [श्रीमतीजी] से ! प्रबंधन को बड़ी बड़ी पोथियों में खोजने के बाद भी अधूरापन ! जानिए कैसे पत्नी अपने कार्यो एवं उत्तरदायित्वो का निर्वहन बड़ी बखूबी सरल एवं सहज अंदाज में अपने प्रबंधन के माध्यम से संपन्न करती है -
इन्वेंट्री कण्ट्रोल के विविध सिध्धांत क्रियान्वयन स्तर पर भारी भरकम प्रतीत होते है ! इस मायने में पत्नी के प्रबंधन को परखिये ! सोचिये पत्नी द्वारा घर में शक्कर ख़त्म होने एवं लाने की बात आपसे कही जाती है ! आज आप ऑफिस से लेट है सो टाल दिया , दुसरे दिन एटीएम् तक नहीं पहुचे , अगला दिन आपकी थकान एवं आलस्य ! चौथे दिन शक्कर घर में आई ! इन बीते दिनों में आपको फीकी चाय पीना पड़ी हो शायद ऐसा नहीं हुआ ! आपको यथा समय शक्करमिश्रित चाय मिलती रही ! पत्नीमुख से शायद ही आपने सुना हो की शक्कर ख़त्म हो गयी , मैंने आपको लाने के लिए कहा था सो आज फीकी चाय पीजिये !
देखा आपने वार्निंग अलार्म कब बजाना है श्रीमती बखूबी जानती है ! कारखानों में भी माल डिलीवर होने में लगने वाले समय को ध्यान में रख कर इन्वेंटरी का प्रबंध करना होता है अर्थात माल का न्यूनतम स्तर [ सेफ्टी स्टॉक ]मेंटेन करना होता है ! अन्यथा माल प्राप्ति तक स्थाई लागतों को बढावा व उत्पादन स्थगित !
आप पुरुष प्रधान समाज में रहते है ! पुरुष होने का एवं शारीरिक रूप से बलिष्ठ होने का अहम् आप बगल में साथ लिए चलते है , बुरा मत मानियेगा ! देखें कैसे श्रीमती आपके अहम् को संतुष्ट करती है - घर में ऊँची सेल्फ पर रखे तेल के पीपे को उतारने के लिए वह आपको पुकारती है ! क्या कहती है जरा गौर फरमाईये -" सुनिए जी आप जरा अपने लम्बे हाथों से तेल का पीपा तो निकाल दीजिये !" आप कितने ही महत्वपूर्ण कार्य में मशगुल क्यों न हो आपकी भुजाएँ फरफराती है और आप जाकर तुरंत पीपा नीचे उतार देते है ! उचीं सेल्फ से अन्य साधनों के प्रयोग से तेल का पीपा निकालना वह भी जानती है शायद आपकी अनुपस्थिति में वह ऐसा करती भी होंगी ! अपने बॉस के सुपीरियर होने के अहम् की संतुष्टि के लिए आपको क्या करना है आप समझ गए होंगे !
आईये देखें श्रीमती कैसे अभिप्रेरण के सिध्धांत सहजता से लागु करती है - बेटा चलना सीख रहा है ! एक कदम ..दो कदम ..... धम्म ! गिर कर रोने लगता है ! श्रीमतीजी - अरे ..अरे राजा बेटा गिर गया जमीं को धाप देते हुए कहती है हमारे बेटे को गिरा दिया ! और बेटे को पुनः चलने के लिए तत्पर करती है ! इस सरल सहज सिध्धांत को अपने अधीनस्थों के लिए आरक्षित रखिये ! देखिये आप कैसे उनके चहेते बन जाते है !
आजकल व्यवसाय के आतंरिक एवं बाहय पक्षकारों के प्रति सामजिक उत्तरदायित्व के निर्वहन की चर्चा की जाती है ! श्रीमतियाँ भी परिवार रूपी संगठन में ऐसे उत्तरदायित्वो को सदियों से पूरा करती आई है ! घर में पके पकवान का स्वाद लेने से कोई सदस्य अछूता नहीं रहता , यहाँ तक की पड़ोस वाली भाभी भी ! मेहमान आ जाये तो ख़ुशी की बात !
संगठन के विस्तार एवं ख्याति के लिए जरा इस रेसिपी को भी आजमा कर देखिये !
इन्वेंट्री कण्ट्रोल के विविध सिध्धांत क्रियान्वयन स्तर पर भारी भरकम प्रतीत होते है ! इस मायने में पत्नी के प्रबंधन को परखिये ! सोचिये पत्नी द्वारा घर में शक्कर ख़त्म होने एवं लाने की बात आपसे कही जाती है ! आज आप ऑफिस से लेट है सो टाल दिया , दुसरे दिन एटीएम् तक नहीं पहुचे , अगला दिन आपकी थकान एवं आलस्य ! चौथे दिन शक्कर घर में आई ! इन बीते दिनों में आपको फीकी चाय पीना पड़ी हो शायद ऐसा नहीं हुआ ! आपको यथा समय शक्करमिश्रित चाय मिलती रही ! पत्नीमुख से शायद ही आपने सुना हो की शक्कर ख़त्म हो गयी , मैंने आपको लाने के लिए कहा था सो आज फीकी चाय पीजिये !
देखा आपने वार्निंग अलार्म कब बजाना है श्रीमती बखूबी जानती है ! कारखानों में भी माल डिलीवर होने में लगने वाले समय को ध्यान में रख कर इन्वेंटरी का प्रबंध करना होता है अर्थात माल का न्यूनतम स्तर [ सेफ्टी स्टॉक ]मेंटेन करना होता है ! अन्यथा माल प्राप्ति तक स्थाई लागतों को बढावा व उत्पादन स्थगित !
आप पुरुष प्रधान समाज में रहते है ! पुरुष होने का एवं शारीरिक रूप से बलिष्ठ होने का अहम् आप बगल में साथ लिए चलते है , बुरा मत मानियेगा ! देखें कैसे श्रीमती आपके अहम् को संतुष्ट करती है - घर में ऊँची सेल्फ पर रखे तेल के पीपे को उतारने के लिए वह आपको पुकारती है ! क्या कहती है जरा गौर फरमाईये -" सुनिए जी आप जरा अपने लम्बे हाथों से तेल का पीपा तो निकाल दीजिये !" आप कितने ही महत्वपूर्ण कार्य में मशगुल क्यों न हो आपकी भुजाएँ फरफराती है और आप जाकर तुरंत पीपा नीचे उतार देते है ! उचीं सेल्फ से अन्य साधनों के प्रयोग से तेल का पीपा निकालना वह भी जानती है शायद आपकी अनुपस्थिति में वह ऐसा करती भी होंगी ! अपने बॉस के सुपीरियर होने के अहम् की संतुष्टि के लिए आपको क्या करना है आप समझ गए होंगे !
आईये देखें श्रीमती कैसे अभिप्रेरण के सिध्धांत सहजता से लागु करती है - बेटा चलना सीख रहा है ! एक कदम ..दो कदम ..... धम्म ! गिर कर रोने लगता है ! श्रीमतीजी - अरे ..अरे राजा बेटा गिर गया जमीं को धाप देते हुए कहती है हमारे बेटे को गिरा दिया ! और बेटे को पुनः चलने के लिए तत्पर करती है ! इस सरल सहज सिध्धांत को अपने अधीनस्थों के लिए आरक्षित रखिये ! देखिये आप कैसे उनके चहेते बन जाते है !
आजकल व्यवसाय के आतंरिक एवं बाहय पक्षकारों के प्रति सामजिक उत्तरदायित्व के निर्वहन की चर्चा की जाती है ! श्रीमतियाँ भी परिवार रूपी संगठन में ऐसे उत्तरदायित्वो को सदियों से पूरा करती आई है ! घर में पके पकवान का स्वाद लेने से कोई सदस्य अछूता नहीं रहता , यहाँ तक की पड़ोस वाली भाभी भी ! मेहमान आ जाये तो ख़ुशी की बात !
संगठन के विस्तार एवं ख्याति के लिए जरा इस रेसिपी को भी आजमा कर देखिये !
शुक्रवार, 23 जुलाई 2010
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
सोमवार, 21 जून 2010
अपने सभी संघर्षरत मित्रों का संघर्ष सहज हो सके इस हेतु कुछ पंक्तियाँ गढ़ रहा हूँ !
दिवा स्वेद से
रंजित
न हो /
स्वप्न सलोने
होते नहीं ...
कर्म पथ
मर्म मन /
आँखों में जब
हो न अर्जुन /
स्वप्न सलोने
होते नहीं ...
कर्म पथ ही है
बंधू
क़दमों से विराम
की दुरी ...
विकल्पहीन
संकल्प न हो /
स्वप्न सलोने
होते नहीं !
दिवा स्वेद से
रंजित
न हो /
स्वप्न सलोने
होते नहीं ...
कर्म पथ
मर्म मन /
आँखों में जब
हो न अर्जुन /
स्वप्न सलोने
होते नहीं ...
कर्म पथ ही है
बंधू
क़दमों से विराम
की दुरी ...
विकल्पहीन
संकल्प न हो /
स्वप्न सलोने
होते नहीं !
सोमवार, 14 जून 2010
बुधवार, 9 जून 2010
रविवार, 6 जून 2010
रामदुलारो को समर्पित पंक्तिया
रामदुलारी का मायके जाना
है सुख इसमें हमने माना!!
है इसमें स्वछंदता का बोध
ले ले पुनः आजादी का भोग !!
मुश्किल से मिलता है यह सबाब
जब न देना कोई हिसाब !!
न आटे दाल से हो दो चार
न मानस उपजे बजट विचार !!
उठो , नहा लो , खा लो के बाधक नहीं प्रश्न
यार मेरे अब मना ले जश्न !!
फरमाइशे भी हुई स्थगित
अब बना ले खुद को मीत !!
काल है अल्प यह मेरे यारा
तलाशोगे मौका तुम दोबारा !!
अनिकेतन में है मौज का आलम
पर याद जरूर रखियो बालम /
याद सताती है तुम्हारी , फुनवा पर जरूर कहना !
आफ्टरआल होती है , रामदुलारी घर का गहना !!
रामदुलारी का मायके जाना
है सुख इसमें हमने माना!!
है इसमें स्वछंदता का बोध
ले ले पुनः आजादी का भोग !!
मुश्किल से मिलता है यह सबाब
जब न देना कोई हिसाब !!
न आटे दाल से हो दो चार
न मानस उपजे बजट विचार !!
उठो , नहा लो , खा लो के बाधक नहीं प्रश्न
यार मेरे अब मना ले जश्न !!
फरमाइशे भी हुई स्थगित
अब बना ले खुद को मीत !!
काल है अल्प यह मेरे यारा
तलाशोगे मौका तुम दोबारा !!
अनिकेतन में है मौज का आलम
पर याद जरूर रखियो बालम /
याद सताती है तुम्हारी , फुनवा पर जरूर कहना !
आफ्टरआल होती है , रामदुलारी घर का गहना !!
बुधवार, 2 जून 2010
सोमवार, 31 मई 2010
शराफत जो
पसरती थी
आँगनो में
दिखाई देती है
वो अब
इश्तेहारो में ..
बाँग अब
भोर की
मुर्गा देता नहीं
क्यों ? अजान भी
कानो को
सुनाई देती नहीं /
वेदों की ऋचाओ से
खेरियत तलाशते
संत भी
कर बेठे इश्तेहार
कोई नई बात नहीं /
मजलिस में
मातबर
दिखाई देता नहीं ..
मौजूं है जो
अनासिर में
लीन हो जायेगा
कोई क्यों
याद करता नहीं ....!
पसरती थी
आँगनो में
दिखाई देती है
वो अब
इश्तेहारो में ..
बाँग अब
भोर की
मुर्गा देता नहीं
क्यों ? अजान भी
कानो को
सुनाई देती नहीं /
वेदों की ऋचाओ से
खेरियत तलाशते
संत भी
कर बेठे इश्तेहार
कोई नई बात नहीं /
मजलिस में
मातबर
दिखाई देता नहीं ..
मौजूं है जो
अनासिर में
लीन हो जायेगा
कोई क्यों
याद करता नहीं ....!
रविवार, 30 मई 2010
वो तेरे हाथों की
मेहंदी की खुशबु
वो रूमानी शामें
जहाँ सांसे
महका करती थी
तेरी बातों की
चंचल तितलियाँ
जब मन बगिया में
थिरका करती थी
कितने अच्छे दिन थे
जब तुम मेरे साथ थी ॥
वो शानों पर तेरे
थिरकते मेरे विचार
और वो मुहं मोड़कर
शर्माना तेरा ,
वो तेरा रूठना
और मेरा
कागज पर
मन उकेरकर
मनाना
रूठने मनाने सी
कविता सी
तुम्हारा मुझे
नज़र होना /
कितने अच्छे दिन थे
जब तुम मेरे साथ थी !
मेहंदी की खुशबु
वो रूमानी शामें
जहाँ सांसे
महका करती थी
तेरी बातों की
चंचल तितलियाँ
जब मन बगिया में
थिरका करती थी
कितने अच्छे दिन थे
जब तुम मेरे साथ थी ॥
वो शानों पर तेरे
थिरकते मेरे विचार
और वो मुहं मोड़कर
शर्माना तेरा ,
वो तेरा रूठना
और मेरा
कागज पर
मन उकेरकर
मनाना
रूठने मनाने सी
कविता सी
तुम्हारा मुझे
नज़र होना /
कितने अच्छे दिन थे
जब तुम मेरे साथ थी !
शनिवार, 29 मई 2010
सिलसिला कही उकताहटपैदा करता है ,जबकि आगाज नूतनता को समाविष्ट किये होता है !
आगाज आशा है , जोश की रवानी है , विराम को चुनौती है !
अर्पण कर
शब्दों को
आगाज
कोई करता हूँ ....
कर शब्दाभिषेक
अश्रुजल से
मन मानस को
पुनीत करता हूँ
आगाज
कोई करता हूँ .....
शब्द बने सुमन /
महक हो
चन्दन सी /
तुलसीदल सा
हो रस
सोच यही
आगाज
कोई करता हूँ ....!
आगाज आशा है , जोश की रवानी है , विराम को चुनौती है !
अर्पण कर
शब्दों को
आगाज
कोई करता हूँ ....
कर शब्दाभिषेक
अश्रुजल से
मन मानस को
पुनीत करता हूँ
आगाज
कोई करता हूँ .....
शब्द बने सुमन /
महक हो
चन्दन सी /
तुलसीदल सा
हो रस
सोच यही
आगाज
कोई करता हूँ ....!
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