दूरंगी
१
पैमाने से
छलकी मधु
जब
कविता बनती है /
गली के मोड़ की
मधुशाला
तब
उसका पता बनती है !
२
सुना है
अंगूर की बेटी
से इश्क
कर बेठा है
अब वो /
'दीवाना' कहता है
बोतल पर
बेवफाई की इबारत
लिखी नहीं होती !
बुधवार, 27 अक्टूबर 2010
रविवार, 24 अक्टूबर 2010
कमबख्त....
१
आजादी अब
रास आती नहीं
क्योंकर
कहा मुझसे
आँखों में
'केद' कर लेंगे तुम्हे !
२
कागज़ पर
लेखनी सरकती नहीं
क्योंकर
तुम्हारा नाम ही
बेहतर 'नज़्म'
जान पड़ती है मुझे !
३
दिल को
चाहकर भी
बहला न सका
क्योंकर
उसे 'विश्वास' कि जिद
थमाई तुमने !
४
मनसूबे अब
अलहदा होते नहीं
मुझसे
क्योंकर
'तलब' की गिरह
लगाई तुमने !
१
आजादी अब
रास आती नहीं
क्योंकर
कहा मुझसे
आँखों में
'केद' कर लेंगे तुम्हे !
२
कागज़ पर
लेखनी सरकती नहीं
क्योंकर
तुम्हारा नाम ही
बेहतर 'नज़्म'
जान पड़ती है मुझे !
३
दिल को
चाहकर भी
बहला न सका
क्योंकर
उसे 'विश्वास' कि जिद
थमाई तुमने !
४
मनसूबे अब
अलहदा होते नहीं
मुझसे
क्योंकर
'तलब' की गिरह
लगाई तुमने !
शनिवार, 23 अक्टूबर 2010
पर सोचता हूँ मैं ...........
१- जानता हूँ
औंस की
बूंदों की
पाकीजगी को
पर सोचता हूँ ..
यें इतनी जल्दी
ढुलकी कैसे ?
२- जानता हूँ
कि तुम्हें
तुम्हारा
सारा सामान
अब लोटाना होगा
पर सोचता हूँ ..
चुराए हुए
चुम्बन लोटाऊ कैसे ?
३- जानता हूँ
स्नेह से
मुफलिसी का
कोई वास्ता नहीं
पर सोचता हूँ ..
दिल बेचकर तुम
धनी हुए कैसे ?
१- जानता हूँ
औंस की
बूंदों की
पाकीजगी को
पर सोचता हूँ ..
यें इतनी जल्दी
ढुलकी कैसे ?
२- जानता हूँ
कि तुम्हें
तुम्हारा
सारा सामान
अब लोटाना होगा
पर सोचता हूँ ..
चुराए हुए
चुम्बन लोटाऊ कैसे ?
३- जानता हूँ
स्नेह से
मुफलिसी का
कोई वास्ता नहीं
पर सोचता हूँ ..
दिल बेचकर तुम
धनी हुए कैसे ?
सोमवार, 4 अक्टूबर 2010
कुछ खट्टी ----------
१.
तुमने करीने से
लगाये पैबंद
फिर भी
पोशिदा नहीं हुआ
'सच'
वह तो नंगा का नंगा
ही रहा !
२
लोग तुम्हें
कतरा- कतरा
खरीदते रहे /
तुम महंगे सामान से
घर भरते रहे /
दिल तो फिर भी
खाली का खाली ही रहा !
कुछ मीठी ----------
कुछ इस तरह
'आलम'
नींद का देखा यूँ
सुनकर लोरी माँ की /
न याद मज्जिद रही
न याद मंदिर ही रहा !
१.
तुमने करीने से
लगाये पैबंद
फिर भी
पोशिदा नहीं हुआ
'सच'
वह तो नंगा का नंगा
ही रहा !
२
लोग तुम्हें
कतरा- कतरा
खरीदते रहे /
तुम महंगे सामान से
घर भरते रहे /
दिल तो फिर भी
खाली का खाली ही रहा !
कुछ मीठी ----------
कुछ इस तरह
'आलम'
नींद का देखा यूँ
सुनकर लोरी माँ की /
न याद मज्जिद रही
न याद मंदिर ही रहा !
शनिवार, 2 अक्टूबर 2010
मेरे सूबे की साँझ
स्वर परिंदे
उतरे आसमाँ से
गीत संजा
मुखर हुए /
सुर्ख हुए मुख
यूँ गोरी के
चाँद जेसे
चस्पा हुए /
अजान कहीं शंखनाद
का गुंजन
महकी यूँ गोधूलि ऐसे
घर -घर जेसे
'प्रयाग' हुए /
कहीं अनुभव चौपालों के
कहीं मोड़
जवानी के
आबाद हुए यूँ ऐसे
जेसे चलती फिरती
किताब हुए /
पैजनियाँ की
खनक सा
छलका पानी
पनघट पर यूँ
गीत तरुणाई
प्रखर हुए /
चस्पा चस्पा
बिखरी मिटटी
जेसे चन्दन की
'आब' हुई/
तान कजरी की
झूले की परवान हुई /
कुछ इस तरह देखो
मेरे सूबे की साँझ हुई !
स्वर परिंदे
उतरे आसमाँ से
गीत संजा
मुखर हुए /
सुर्ख हुए मुख
यूँ गोरी के
चाँद जेसे
चस्पा हुए /
अजान कहीं शंखनाद
का गुंजन
महकी यूँ गोधूलि ऐसे
घर -घर जेसे
'प्रयाग' हुए /
कहीं अनुभव चौपालों के
कहीं मोड़
जवानी के
आबाद हुए यूँ ऐसे
जेसे चलती फिरती
किताब हुए /
पैजनियाँ की
खनक सा
छलका पानी
पनघट पर यूँ
गीत तरुणाई
प्रखर हुए /
चस्पा चस्पा
बिखरी मिटटी
जेसे चन्दन की
'आब' हुई/
तान कजरी की
झूले की परवान हुई /
कुछ इस तरह देखो
मेरे सूबे की साँझ हुई !
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